मुझे कानों में एयर-फोन ठूंस कर कुछ भी सुनना बिल्कुल नहीं भाता...ये जो एयर-बड़्स भी आ गये हैं, वे भी नहीं ...मुझे रेडियो वैसे ही सुनना भाता है जैसा हम लोग बचपन से सुनते आए हैं...लेकिन बहुत से एंटीक रेडियो-ट्रांजिस्टर होते हुए भी अब अपने मोबाइल पर ही विविध भारती सुन पाता हूं...क्योंकि रेडियो-ट्रांजिस्टरों पर फ्रिक्वेंसी की बड़ी दिक्कत होती है ... कभी विविध भारती पकड़ा, कभी न पकड़ा....मैं विविध भारती बार बार इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं सिर्फ़ वही रेडियो स्टेशन सुनता हूं ...जब भी मैं घर होता हूं तो निरंतर विविध भारती के संसार में खोया रहता हूं ...
रविवार के दिन दोपहर २ से ३ बजे तक एक फिल्मी स्टोरी आती है विविध भारती पर ....उस की तारीफ़ के बारे में कुछ लिखना भी चाहूं तो मैं लिख न पाऊंगा ...मेरे पास उतने उम्दा अल्फ़ाज़ भी तो होने चाहिए। मुझे याद है जब हम बिल्कुल छोटे थे तो ऐसा ही एक प्रोग्राम १२.३० बजे बाद दोपहर आया करता था ...जिसे सुनना बहुत अच्छा लगता था ...अब भी मुझे बराबर ख़्याल रहता है ऐतवार के २ बजने का ...😂...हां, तो इस बार ऐतवार को जिस फिल्म की स्टोरी विविध भारती के प्रोग्राम - बाइस्कोप की बातें ...में सुनाई गईं, उस का नाम है धुन्द।
ये जो बाइस्कोप की बातें प्रोग्राम है, बताया जाता है कि यह रिपीट ब्रॉडकॉस्ट है, पहले ये सब सीरीज़ बीस साल पहले भी विविध भारती पर सुनाई जा चुकी हैं..लेकिन इन का जादू आज भी वैसे का वैसे बरकरार है ... पहले घर में जब नया नया टीवी आया और हम कोई बडा़ रोचक प्रोग्राम देख रहे होते ..तो विज्ञापन आने तक सब कुछ मुतलवी रहता ...हाजत-फाजत भी 😄😄...और एक, दो, तीन नंबर सब कुछ ....आप यही सोच रहे हैं कि एक और दो नंबर तो सुने थे, यह तीन नंबर क्या हुआ....सच में मुझे भी नहीं पता, लेकिन लिखने वाले के मन की मौज है, कुछ भी लिख कर खुश हो ले ..बहरहाल, मेरे लिए बाइस्कोप की बातों की भी वही अहमियत है ... जब लोकेन्द्र शर्मा किसी फिल्म की कहानी सुनाने में लगे होते हैं तो अपने रूम से किचन में जा कर पानी पीने की इच्छा नहीं होती ....लेकिन अभी लिखते लिखते ख्याल आया है कि मैं इतना परेशां खामखां पता नहीं क्यों होता हूं ...मोबाइल भी साथ ले जाकर पानी पी आया करूं...
जब मैं धुंध फिल्म की स्टोरी सुन रहा था ...जनाब बी आर चोपड़ा साहब की फिल्म है ... ज़ाहिर सी बात है हिंदोस्तानी ज़ुबान पर उन की पकड़ के बारे में कुछ कहना चांद को दिया दिखाने वाली बात है ..क्या तो डॉयलॉग थे, और क्या गीत ....शायद साहिर लुधियानवी ने गीत लिखे हैं ..क्योंकि उन की फिल्मों के गीत वही लिखते थे ...हिंदोस्तानी ज़ुबान मैं बार बार लिख रहा हूं ....आखिर यह है क्या....यह वह ज़ुबान है जो हमें सदियों से गुड़ती में मिली है ...यह हिंदी और उर्दू, फारसी अल्फ़ाज़ को मिला कर बनी है ....बनी भी क्या है, आम चलने वाली लोकप्रिय भाषाओं को कौन बना सकता है ...ये तो अपना रास्ता ख़ुद बनाया करती हैं ...इस की मिठास, इस का अपनापन, इस की सहजता सुनने ही बनती है ...जितनी भी हम ६०-७०-८० के दशक की सुपरहिट फिल्मों की बातें करते हैं ....वे सब हिंदोस्तानी ज़ुबान में लिखी गई हैं .. हिंदोस्तान की आम बोल चाल की भाषा ...जो सदियों से हमारे ज़ुबान पर चढ़ी हुई हैं...यही हमारे जज़्बात की सही अक्कासी कर सकती है ...इस की सुंदरता यह भी है कि यह नदी के प्रवाह की तरह निकल पड़ती है ...हमें सोचना नहीं पड़ता...दिक्कत वहीं अब होने लगी है जब से हमने हिंदी और उर्दू को हिंदु और मुस्लिम धर्म वाले चश्मे से देखना शुरू कर दिया है ...ये सब बेवकूफी की बातें हैं...क्योकि ज़ुबान किसी मज़हब की नहीं हुआ करती, ज़ुबान तो इलाकों की हुआ करती है....
मेरे उर्दू के उस्ताद बताया करते थे कि ये जो हिंदी और उर्दू की डिवीज़न भी ये फिरंगी लोग ही जाते जाते कर गए...जब कि वे लोग जब यहां आते थे तो सब से पहले उर्दू भाषा सीखा करते थे ...सारा सरकारी काम उर्दू में होता था ...
From my collection- Rarest of rare! |
चार पांच साल पहले मैंने एक कहानी लिखी ...एक मरीज़ आती थीं जो किसी बड़े नामचीन स्कूल में हिंदी की वरिष्ठ अध्यापिका थी ...मैंने उन्हें कहानी पढ़ने को दी ....उन की फीडबैक पा कर मैं दंग रह गया ...कहने लगीं कि कहानी तो बहुत बढ़िया है, लेेकिन डाक्टर साहब, ये जो आपने इसमें कुछ उर्दू के शब्द इस्तेमाल किए हैं न, उन्हें हटा दीजिए...। मैं उस बेचारी की अज्ञानता पर हैरान था...शब्द तो मैंने क्या हटाने थे...लेकिन मैंने उस दिन के बाद उन के साथ भाषा की कोई बात नहीं की...