Monday 3 January 2022

हिंदोस्तानी ज़ुबान का भी कोई जवाब नहीं....

मुझे कानों में एयर-फोन ठूंस कर कुछ भी सुनना बिल्कुल नहीं भाता...ये जो एयर-बड़्स भी आ गये हैं, वे भी नहीं ...मुझे रेडियो वैसे ही सुनना भाता है जैसा हम लोग बचपन से सुनते आए हैं...लेकिन बहुत से एंटीक रेडियो-ट्रांजिस्टर होते हुए भी अब अपने मोबाइल पर ही विविध भारती सुन पाता हूं...क्योंकि रेडियो-ट्रांजिस्टरों पर फ्रिक्वेंसी की बड़ी दिक्कत होती है ... कभी विविध भारती पकड़ा, कभी न पकड़ा....मैं विविध भारती बार बार इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं सिर्फ़ वही रेडियो स्टेशन सुनता हूं ...जब भी मैं घर होता हूं तो निरंतर विविध भारती के संसार में खोया रहता हूं ...

रविवार के दिन दोपहर २ से ३ बजे तक एक फिल्मी स्टोरी आती है विविध भारती पर ....उस की तारीफ़ के बारे में कुछ लिखना भी चाहूं तो मैं लिख न पाऊंगा ...मेरे पास उतने उम्दा अल्फ़ाज़ भी तो होने चाहिए। मुझे याद है जब हम बिल्कुल छोटे थे तो ऐसा ही एक प्रोग्राम १२.३० बजे बाद दोपहर आया करता था ...जिसे सुनना बहुत अच्छा लगता था ...अब भी मुझे बराबर ख़्याल रहता है ऐतवार के २ बजने का ...😂...हां, तो इस बार ऐतवार को जिस फिल्म की स्टोरी विविध भारती के प्रोग्राम - बाइस्कोप की बातें ...में सुनाई गईं, उस का नाम है धुन्द

 
पहले देखी होगी या न देखी होगी...मुझे याद नहीं ...मैं कहां कोई फिल्म छोड़ता था ...अगर १९७३ में न भी देखी होगी तो दूरदर्शन पर ही देखी होगी ..लेकिन मुझे इस की स्टोरी के बारे में कुछ भी याद न था...बस, इस का एक नगमा जो मेरे दिल के बहुत करीब है, वह भी मुझे कुछ अरसा पहले ही पता चला था कि इस फिल्म का है। 

ये जो बाइस्कोप की बातें प्रोग्राम है, बताया जाता है कि यह रिपीट ब्रॉडकॉस्ट है, पहले ये सब सीरीज़ बीस साल पहले भी विविध भारती पर सुनाई जा चुकी हैं..लेकिन इन का जादू आज भी वैसे का वैसे बरकरार है ... पहले घर में जब नया नया टीवी आया और हम कोई बडा़ रोचक प्रोग्राम देख रहे होते ..तो विज्ञापन आने तक सब कुछ मुतलवी रहता ...हाजत-फाजत भी 😄😄...और एक, दो, तीन नंबर सब कुछ ....आप यही सोच रहे हैं कि एक और दो नंबर तो सुने थे, यह तीन नंबर क्या हुआ....सच में मुझे भी नहीं पता, लेकिन लिखने वाले के मन की मौज है, कुछ भी लिख कर खुश हो ले ..बहरहाल, मेरे लिए बाइस्कोप की बातों की भी वही अहमियत है ... जब लोकेन्द्र शर्मा किसी फिल्म की कहानी सुनाने में लगे होते हैं तो अपने रूम से किचन में जा कर पानी पीने की इच्छा नहीं होती ....लेकिन अभी लिखते लिखते ख्याल आया है कि मैं इतना परेशां खामखां पता नहीं क्यों होता हूं ...मोबाइल भी साथ ले जाकर पानी पी आया करूं...

जब मैं धुंध फिल्म की स्टोरी सुन रहा था ...जनाब बी आर चोपड़ा साहब की फिल्म है ... ज़ाहिर सी बात है हिंदोस्तानी ज़ुबान पर उन की पकड़ के बारे में कुछ कहना चांद को दिया दिखाने वाली बात है ..क्या तो डॉयलॉग थे, और क्या गीत ....शायद साहिर लुधियानवी ने गीत लिखे हैं ..क्योंकि उन की फिल्मों के गीत वही लिखते थे ...हिंदोस्तानी ज़ुबान मैं बार बार लिख रहा हूं ....आखिर यह है क्या....यह वह ज़ुबान है जो हमें सदियों से गुड़ती में मिली है ...यह हिंदी और उर्दू, फारसी अल्फ़ाज़ को मिला कर बनी है ....बनी भी क्या है, आम चलने वाली लोकप्रिय भाषाओं को कौन बना सकता है ...ये तो अपना रास्ता ख़ुद बनाया करती हैं ...इस की मिठास, इस का अपनापन, इस की सहजता सुनने ही बनती है ...जितनी भी हम ६०-७०-८० के दशक की सुपरहिट फिल्मों की बातें करते हैं ....वे सब हिंदोस्तानी ज़ुबान में लिखी गई हैं .. हिंदोस्तान की आम बोल चाल की भाषा ...जो सदियों से हमारे ज़ुबान पर चढ़ी हुई हैं...यही हमारे जज़्बात की सही अक्कासी कर सकती है ...इस की सुंदरता यह भी है कि यह नदी के प्रवाह की तरह निकल पड़ती है ...हमें सोचना नहीं पड़ता...दिक्कत वहीं अब होने लगी है जब से हमने हिंदी और उर्दू को हिंदु और मुस्लिम धर्म वाले चश्मे से देखना शुरू कर दिया है ...ये सब बेवकूफी की बातें हैं...क्योकि ज़ुबान किसी मज़हब की नहीं हुआ करती, ज़ुबान तो इलाकों की हुआ करती है....

मेरे उर्दू के उस्ताद बताया करते थे कि ये जो हिंदी और उर्दू की डिवीज़न भी ये फिरंगी लोग ही जाते जाते कर गए...जब कि वे लोग जब यहां आते थे तो सब से पहले उर्दू भाषा सीखा करते थे ...सारा सरकारी काम उर्दू में होता था ...

From my collection- Rarest of rare! 

चार पांच साल पहले मैंने एक कहानी लिखी ...एक मरीज़ आती थीं जो किसी बड़े नामचीन स्कूल में हिंदी की वरिष्ठ अध्यापिका थी ...मैंने उन्हें कहानी पढ़ने को दी ....उन की फीडबैक पा कर मैं दंग रह गया ...कहने लगीं कि कहानी तो बहुत बढ़िया है, लेेकिन डाक्टर साहब, ये जो आपने इसमें कुछ उर्दू के शब्द इस्तेमाल किए हैं न, उन्हें हटा दीजिए...। मैं उस बेचारी की अज्ञानता पर हैरान था...शब्द तो मैंने क्या हटाने थे...लेकिन मैंने उस दिन के बाद उन के साथ भाषा की कोई बात नहीं की...

Saturday 1 January 2022

हर कागज़ बोलता है ...

डा प्रवीण चोपड़ा 

यही कोई दो-तीन पहले की बात है ...मैं जिस अस्पताल में काम करता हूं, वहां की जो मेडीकल डॉयरेक्टर हैं उन की लिखी एक चिट्ठी देखी ..वाट्सएप पर ...जो उन्होंने बीएमसी के किसी उच्च अधिकारी को कोविड इंजेक्शन के लिए लिखी थी....

चिट्ठी मैं यहां शेयर नहीं कर सकता ...लेकिन वही बात है कि हर कागज़ जैसे बोलता है ... उसी तरह से वह चिट्ठी भी बोल रही थी, एक दम सधी हुई भाषा, बढ़िया सा पैड, बढ़िया टाइपिंग ...एकदम परफैक्ट, चिट्ठी के नीचे नाम के साथ भी एक बढ़िया सी स्टैंप और उस के साथ ही में दाईं तरफ़ अस्पताल की सील ...मैं उस चिट्ठी को देख कर यही सोच रहा था कि ऐसी चिट्ठीयां जहां भी जाती हैं उन्हें कोई कैसे इग्नोर कर सकता है ....such letters stand out of the whole bunch of letters! मैं उस वाट्सएप ग्रुप पर ही तारीफ़ करता करता रह गया जो कि ज़्यादा तारीफ़ में और चाटुकारिता में लाइन बड़ी महीन होती है .....इसलिए चुप बैठा रहा। लेकिन कुछ चिट्ठियां देखते ही पारखी लोगों को उन के पीछे बरसों की तपस्या समझते देर नहीं लगती। 

लेकिन, वही हुआ जो मुझे लग रहा था ...अगले ही दिन किसी ने बीएमसी की तरफ़ से जवाब लिखा हुआ था कि आप को इंजेक्शन भिजवाएं जा रहे हैं.

यह वाक्या लिखने का मेरा मक़सद सिर्फ़ इतना है कि हम कहीं भी कोई चिट्ठी भेज रहे हैं तो उसे अच्छे से लिखें, अच्छे से पढ़ कर कोई भी गल्ती हो उसे सुधार लें..क्योंकि जिस के पास भी वह चिट्ठी जा रही है, आप उस के सामने मौजूद नहीं है, आप कितने भी प्रकांड विद्वान हैं, भाषा विज्ञानी हैं या कुछ भी हैं, उसने आप की शख्शियत का, आप के रूतबे का आंकलन आप के लिखे ख़त ही से कर लेना है ....हम अकसर सोचते हैं कि यार, सरकारी महकमों में ही तो जानी हैं चिट्ठी..क्या फ़र्क पड़ता है...लेकिन यही हमारी गलतफहमी है ... हर चीज़ का फ़र्क़ पड़ता है ... हर कागज़ बोलता है ...हमारी लिखी हुई चिट्ठीयां हमारी शख्शियत का आइना होती हैं...

इसलिए मेरा मशविरा यही है कि हर चिट्ठी को बड़ी संजीदगी से लें...वरना अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती ....हमने यह भी देखा है कि किसी अफसर की खराब इंगलिश की वजह से उसकी चिट्ठी ने अर्थ का अनर्थ कर डाला और केवल खराब इंगलिश की वजह से ही उस का शिकंजा ढीला पड़ गया....यह बात भी नहीं कि हमारी इंगलिश पर पकड़ परफैक्ट हो, लेकिन अगर हिंदी भाषा में भी कुछ लिखा जाए तो वह साफ-स्पष्ट और सटीक होना चाहिए....जो बात कहना चाह रहे हैं, सीधे सीधे कह कर बात को खत्म करें...इधर उधर की हांकना की ज़रूरत ही क्या है...और एक गल्ती कईं बार हम अपनी अच्छी इंगलिश का रौब डालने के लिए कुछ ऐसे अल्फ़ाज़ इस्तेमाल कर लेते हैं जिन के बारे मे हम खुद भी आश्वस्त नहीं होते ...इसलिए हिंदी हो या पंजाबी या मराठी हो या इंगलिश लिखते वक्त भी अपनी ज़ुबान को जितना हो सके बोलचाल वाली ही रखा जाए उतना ही अच्छा है...


कम्यूनिकेशन पर कुछ बातें कहनी हैं...

मुझे कम्यूनिकेशन के बारे में कुछ ज़्यादा अता-पता न था...मुझे यह भी न पता था कि यह एक अलग सब्जेक्ट भी होता है ...यह पता चला मुझे १९९२ में- आज से ३० साल पहले --जब मेरा मुंबई के टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साईंसेज़ में एक साल के डिप्लोमा इन हास्पीटल एडमिनिस्टे्शन में एडमिशन हो गया...

रोज़ाना शाम को चार घंटे की क्लासेस लगती थीं ..जो सब्जैक्ट हमें पढ़ाए गए उन में एक सब्जेक्ट यह भी था ...कम्यूनिकेशन। पूरा एक साल इस विषय को पढ़ कर जैसे आंखें खुल गईं...कोर्स तो हो गया लेकिन यह सब्जेक्ट जैसे मेरे दिलो-दिमाग पर छा सा गया...एक तो टीआईएसएस की पढ़ाई ...और ऊपर से यह सब्जेक्ट बड़ा रोचक था...सब कुछ धीरे धीरे समझ में आता गया...

कम्यूनिकेशन के बारे में खुद भी पढ़ता गया ...और बहुत से कोर्स भी करता गया...यहां तक की खेल खेल में मॉस कम्यूनिकेशन में पोस्ट-ग्रेजुएशन भी कर डाली ....

हर तरह की कम्यूनिकेशन की स्टडी की ...एक हॉबी जैसे बन गई....कम्यूनिकेशन के हर माध्यम को नज़दीक से देखा ...देखते ही देखते इन तीस सालों में कम्यूनिकेशन के बारे में इतना कुछ पल्ले पड़ गया कि सोचने लगा कि इसे कहां सहेज लूं ....बस, उसी क्रम में यह ब्लॉग बनाने का ख्याल आया ...

इंगलिश में मैं नहीं लिखना चाहता था ...क्योंकि इंगलिश में मैं उस तरह से एक्सप्रैस नहीं कर पाता हूं जैसा मैं पंजाबी में कर पाता हूं ..लेकिन पंजाबी बोलने-सुनने-पढ़ने से लोग परहेज करते हैंं, ऐसा मैंने महसूस किया है ...इसलिए सोचा जो भी बातें कहनी हैं हिंदी भाषा में ही कह लूंगा...

अब ब्लॉग का नाम सोचने में ही कितना अरसा बीत गया...बातें कम्यूनिकेशन की करनी हैं तो उस का टाइटल भी तो कुछ वैसा ही होना चाहिए...और ये जो सीधी सपाट ट्रासलेशन है न, यह मुझे टर्न-ऑफ कर देती है ...कम्यूनिकेशन का मतलब संवाद ....क्या मैं इसे अपने ब्लाग का टाइटल रख लूं। नहीं, नहीं....यह अपने आप ही मे संवाद इतना नीरस सा शब्द लगता है....

फिर मैंने सोचा कि शीर्षक कुछ ऐसा रख लेता हूं ....अल्फ़ाज़- कहे, सुने, पढ़े, लिखे ....या कहे, सुने, लिखे, पढ़े -- अल्फ़ाज़ ...पर कुछ मज़ा सा नहीं आया ...फिर सोचा कि वही ठीक है अंदाज़-ए-बयां .....कि बंदा अपनी बात रखता कैसे है...इस के बारे में बातें करनी हैं...

मुझे यह भी लगता है कि हर वक्त बंदे को अपने आप को अंडर-एस्टीमेट भी नहीं करना चाहिए...दूसरे लोग कुछ कहें या न कहें...लेकिन हर बंदे को अपनी स्ट्रैंथ-वीकनेस का तो पता ही होता है ...बस, उसी हिसाब से मुझे भी यह लगता है कि कम्यूनिकेशन के बारे में हर स्तर पर मैं इतना कुछ देख चुका हूं, पढ़ चुका हूं, ब्लॉग लिख चुका हूं ....और बहुत ही नज़दीक से आब्ज़र्व भी कर चुका हूं कि मुझे विषय पर अपने मन की बातें कागज़ पर उकेर देनी चाहिएं...

कहने को बहुत कुछ है ....बहुत कुछ ....इसलिए लिखने बैठ गया हूं ....आज २०२२ का पहला दिन है ...हिंदी, पंजाबी, उर्दू, इंगलिश के विद्वानों को जितना भी पढ़ चुका हूं उस की बिना पर यही कह सकता हूं कि कम्यूनिकेशन ही सब कुछ है ....जो हम कह देते हैं, जो नहीं भी कह देते लेकिन आंखें कह देती हैं, जो कह कर पछताते हैं, जो न कह पाने का मलाल ज़िंदगी भर सालता रहता है ....किसी के बातों के नश्तर जो ताउम्र चुभते हैं, किसी के मीठे बोल जो हमें बहुत अच्छा फील करवाते रहते हैं .....सब कुछ चक्कर अल्फ़ाज़ का ही है ...और कुछ नहीं ....

और अल्फ़ाज़ ही नहीं, अंदाज़-ए-बयां की भी बहुत अहमियत है .....बचपन से एक पंजाबी की कहावत सुनते आए हैं कि बंदे की ज़ुबान ही ए जेहड़ी उस नूं जुत्तियां भी पवा सकदी ए तो उस नूं ताज भी पहना सकदी ए...सच बात है आदमी की ज़ुबान ही है जो उस को जूते पड़वा सकती है और तख्त-ओ-ताज़ भी दिला सकती है ....


हिंदोस्तानी ज़ुबान का भी कोई जवाब नहीं....

मुझे कानों में एयर-फोन ठूंस कर कुछ भी सुनना बिल्कुल नहीं भाता...ये जो एयर-बड़्स भी आ गये हैं, वे भी नहीं ...मुझे रेडियो वैसे ही सुनना भाता ह...